शेर शाह सूरी जीवनी - Biography of in Hindi Jivani Published By : upscgk.com शेर शाह सूरी उत्तरी भारत के सुर साम्राज्य के संस्थापक थे, जिनमे उनकी राजधानी दिल्ली भी शामिल है. 1540 मे शेर शाह ने मुघल साम्राज्य को अपने हातो में लिया था. 1545 में उनकी अकस्मात् मृत्यु के बाद, उनका बेटा उत्तराधाकारी बना. पहले वह मुग़ल आर्मी के सेनापति बने और फिर बाद में वे बिहार के शासक के रूप में उठ खड़े हुए. 1537 में, जब बाबर का बेटा हुमायूँ अभियान पर था तब शेर खान ने बंगाल राज्य को हथिया लिया था और वहा उसने सुर साम्राज्य स्थापित किया. शेर शाह ने खुद को हर मोड़ पर सही साबित किया, वे एक सफल शासक साबित हुए और एक वीर और साहसी सेनापति कहलाये. उनके विशाल और समृद्ध साम्राज्य को बाद में मुग़ल शासक हुमायूँ के बेटे अकबर ने हथिया लिया. शेरशाह सूरी के जन्म तिथि और जन्म स्थान के विषय में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों ने इसका जन्म सन् 1485-86, हिसार, फ़िरोजा हरियाणा में और कुछ सन् 1472, सासाराम बिहार में बतलाया है। इब्राहिम ख़ाँ के पौत्र और हसन के प्रथम पुत्र फ़रीद (शेरशाह) के जन्म की तिथि अंग्रेज़ इतिहासकार ने सन् 1485-1486 बताई है। शेरशाह सूरी पर विशेष खोज करने वाले भारतीय विद्वान श्री कालिका रंजन क़ानूनगो ने भी फ़रीद का जन्म सन् 1486 माना है। हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक माता से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य माँ से और सुलेमान और अहमद चौथी माँ से उत्पन्न हुए थे। फ़रीद की माँ बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की माँ से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ) फ़रीद और निज़ाम की माँ से जलती थी, क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक ही था। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा 1540 से 1545 के अपने पाच साल के शासन काल में, उन्होंने अपने साम्राज्य में नयी सैन्य शक्ति का निर्माण किया था, और साथ ही पहले रूपया का भी प्रचलन उन्होंने शुरू किया और भारतीय पोस्टल विभाग को भी उन्होंने अपने शासनकाल में विकसित किया. बाद में उन्होंने हिमायुं दिना पनाह शहर को विकसित कर उसका नाम शेरगढ़ रखा और इतिहासिक शहर पाटलिपुत्र का नाम बदलकर पटना रखा. बाद में ग्रांट ट्रंक रोड को चित्तागोंग से विस्तृत करते हुए रास्तो को पश्चिमी भारत से अफगानिस्तान के काबुल तक ले गये और देशो को रास्ते से जोड़े रखा. वह एक बहुत ही कुशल प्रशासक थे और उनके शासन और सुधारों वह शुरू के लिए उन्हें याद किया जाता है। उनका प्रशासन बहुत ही कुशल लेकिन थोड़ा सख्त था। उन्होंने अपने राज्य को प्रांतों के रूप में विभाजित कर दिया जिन्हें सरकार खा जाता था। आगे उन्हें परगना और फिर छोटी इकाइयों में विभाजित किया गया।माना जाता है कि ‘टंका’ के स्थान पर रुपया और पैसा लागु करने वाले पहले शासक थे। उन्हें कस्टम ड्यूटी की शुरूआत का श्रेय भी दिया जाता है जिसका आज भी पालन किया जाता है। उन्होंने कई सराय, मस्जिदों का निर्माण कराया और सड़कों का तंत्र भी स्थापित किइस जिसमे सबसे प्रसिद्ध है ग्रांड ट्रंक रोड। उनमे वास्तुकला के प्रति एक परिष्कृत स्वाद था, जो उनके द्वारा निर्मित रोहतास किले के निर्माण में स्पष्ट है। उन्होंने अपने प्रशासन के साथ-साथ सैन्य गतिविधियों को भी जारी रखा। उन्होंने बुंदेलखंड में कालिंजर के मजबूत किले को घेरा था जहां 1545 में बारूद के विस्फोट में उनकी आकस्मिक मौत हो गई थी। हालांकिउन्होंने पांच साल की छोटी अवधि के लिए ही भारत पर राज्य किया था लेकिन उनके द्वारा किए गए परिवर्तनों ने लोगों के जीवन पर चिरस्थायी प्रभाव डाला।उन्हें मध्यकालीन भारत के सबसे सफल शासक के रूप में देखा जाता है। एस ऐ राशिद के अनुसार एक सक्षम जनरल, घाघ सैनिक, और एक प्रतिबद्ध शासक के तौर पर शेरशाह अन्य शासकों के ऊपर ही रहे। द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य अभी तक शेरशाह अपने आप को मुगल सम्राटों का प्रतिनिधि ही बताता था पर उनकी चाहत अब अपना साम्राज्य स्थापित करने की थी। शेरशाह की बढ़ती हुई ताकत को देख आखिरकार मुगल और अफ़ग़ान सेनाओं की जून 1539 में बक्सर के मैदानों पर भिड़ंत हुई। मुगल सेनाओं को भारी हार का सामना करना पड़ा। इस जीत ने शेरशाह का सम्राज्य पूर्व में असम की पहाड़ियों से लेकर पश्चिम में कन्नौज तक बढ़ा दिया। अब अपने साम्राज्य को वैध बनाने के लिये उन्होंने अपने नाम के सिक्कों को चलाने का आदेश दिया। यह मुगल सम्राट हुमायूँ को खुली चुनौती थी। अगले साल हुमायूँ ने खोये हुये क्षेत्रो पर कब्ज़ा वापिस पाने के लिये शेरशाह की सेना पर फिर हमला किया, इस बार कन्नौज पर। हतोत्साहित और बुरी तरह से प्रशिक्षित हुमायूँ की सेना 17 मई 1540 शेरशाह की सेना से हार गयी। इस हार ने बाबर द्वारा बनाये गये मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया और उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य की शुरुआत की जो भारत में दूसरा पठान साम्राज्य था लोधी साम्राज्य के बाद। निधन 22 मई 1545 में चंदेल राजपूतों के खिलाफ लड़ते हुए शेरशाह सूरी की कालिंजर किले की घेराबंदी की, जहां उक्का नामक आग्नेयास्त्र से निकले गोले के फटने से उसकी मौत हो गयी। समाधि- शेरशाह ने अपने जीवनकाल में ही अपने मक़बरे काम शुरु करवा दिया था। उनका गृहनगर सासाराम स्थित उसका मक़बरा एक कृत्रिम झील से घिरा हुआ है।]यह मकबरा हिंदू मुस्लिम स्थापत्य शैली काम बेजोड़ नमूना है।इतिहासकार कानूनगो के अनुसार" शेरशाह के मकबरे को देखकर ऐसा लगता है कि वह अन्दर से हिंदू और बाहर से मुस्लिम था"। उपसंहार: इस तरह निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि शेरशाह अपनी अग्रगामी सोच के कारण युग प्रवर्तक था । पीछे आने वाले मुगलों का वह अग्रगामी था । एक व्यक्ति, एक सेनानायक, सैनिक, शासक, राजनीतिज्ञ तथा राष्ट्रनिर्माता के रूप में उसका चरित्र अनुकरणीय था । उसके सुव्यवस्थित शासन प्रबन्ध को मुगलों ने ही नहीं, अपितु अंग्रेजों तक ने अपनाया था । शेरशाह के प्रशासकीय राजस्व सैनिक सुधार तथा जनहित के कार्य उसे मुगल काल का श्रेष्ठ शासक सिद्ध करते हैं । वह अपने समय का महान् साम्राज्य संस्थापक था ।